काँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भी
तीनों थे हम वो भी थे और मैं भी था तन्हाई भी
हाथ छुटे तो भी रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख से रिश्ते नहीं तोड़ा करते
उठाए फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर
चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले
कोई न कोई रहबर रस्ता काट गया
जब भी अपनी रह चलने की कोशिश की
from : Shayari Of Gulzar